Hindi Kahani – रिश्तों की परतें
“कह रहा हूँ! एक बार तो आकर सम्भाल ले अपने बाप को। सिर्फ माँ मरी है तेरी, बाप अभी ज़िंदा है! देख, क्या हाल हो गया मेरा! कुछ भी ढंग का नहीं मिलता!”
– अशोक जी ने अपनी बेटी नेहा को फ़ोन पर ही डांटना शुरू कर दिया।
नेहा की माँ को गुज़रे अभी तीन महीने ही हुए थे। तब वह करीब पंद्रह दिन दिल्ली में रुकी भी थी। लेकिन रोज़-रोज़ मुंबई से दिल्ली आना उसके लिए संभव नहीं था।
हालांकि फ़ोन पर वह तीन बार बात करती थी — दो बार पिताजी से और एक बार अपनी भाभी मेघा से।
अशोक जी दिन में दो बार नेहा से बात करते और हर बार बातों का केंद्र उनकी बहू मेघा ही होती — और वह भी शिकायतों से भरी हुई।
“तेरी माँ थी तब भी रोटी यही बनाती थी, लेकिन तब उसे सास का डर था। कितने पतले, गर्म फुल्के बनाती थी! अब तो देखो, जैसे घास काट कर मोटी रोटी परोस देती है!”
“दो टाइम का दूध भी अब एक बार कर दिया है मैंने, लेकिन वो भी इस औरत से ढंग से नहीं दिया जाता। पता नहीं क्या मिलाने लग गई है! मैं इसके जादू-टोने में नहीं आने वाला। देख लूंगा सबको!”
रोज़-रोज़ की शिकायतें सुनकर नेहा का भी मन विचलित होने लगा था। मेघा सिर्फ़ उसकी भाभी ही नहीं, उसकी पुरानी सहेली भी थी। बीस साल हो गए थे उसे इस घर में, और हर रिश्ते को उसने पूरी ईमानदारी से निभाया था।
माँ की सेवा में मेघा ने खुद को भुला दिया था — तब तो पापा भी उसकी तारीफ करते नहीं थकते थे। लेकिन अब…
अब पापा की बातें सुन-सुनकर नेहा के मन में भी संशय उठने लगा था —
“कहीं सचमुच भाभी बदल तो नहीं गई हैं?”
“तेरी भाभी से कितनी बार कहा है मेरे पैरों में दर्द है, फिर भी रोज़ मुझे दूध लाने भेज देती है। पहले तो दूध वाला दरवाज़े तक आता था — लेकिन महारानी ने उसे मना कर दिया! हाँ, उसे तो चौबीस घंटे का नौकर जो मिल गया है। तू मत आ, फिर मत कहना!”
– अशोक जी की झुंझलाहट चरम पर थी।
“पापा, भैया तो पहले भी मुश्किल से ही वक्त निकाल पाते थे, नौकरी के कारण।”
– नेहा ने भाई का पक्ष लेते हुए कहा।
“मुझे कुछ नहीं पता! तू बस एक बार आ जा! आज देख लेना — फिर से कितनी मोटी रोटी बनाई है इसने! अगर तेरी माँ ज़िंदा होती, तो क्या मजाल थी इसकी, जो ये सब मनमानी करती?”
अब नेहा को भी लगने लगा था कि भाभी से बात करनी पड़ेगी। लेकिन फ़ोन पर नहीं — सामना करना ज़रूरी है।
रक्षाबंधन भी आने वाला था — माँ के जाने के बाद पहला त्योहार।
“क्यों न इस बार दिल्ली जाया जाए? भाभी को भी लगेगा कि अब पापा अकेले नहीं हैं।”
– नेहा ने सोचा और टिकट कटवा ली।
“चलो, तुम्हें बाप की सुध तो आई!”
– अशोक जी ने दरवाज़ा खोलते ही चुटकी ली, “अब खुद देखना, मेरी हालत क्या हो गई है इस घर में।”
उसी समय मेघा कमरे में आ गई।
“अच्छा हुआ दीदी आप आ गईं! अब तो मैं दस-पंद्रह दिन तक आपको कहीं नहीं जाने दूंगी! जानती हैं, कितनी अकेली हो गई थी इन दिनों!”
– उसका चेहरा मुस्कराता था, लेकिन आंखों में थकान झलक रही थी।
नेहा को उसका अपनापन अच्छा लगा।
“मुझे तो उसमें कोई बदलाव नहीं लग रहा…”
– नेहा ने सोचा।
“या शायद… सब ऊपरी बातें हों?”
– मन के किसी कोने में संशय अभी भी बैठा था।
घर माँ के बिना वीरान सा लग रहा था। हर कोना जैसे उनका इंतज़ार कर रहा हो।
नेहा पहली बार माँ के बाद घर आई थी, और मेघा हर कदम पर उसका ध्यान रख रही थी — चाय, मठरी, नहाने का गर्म पानी, हर छोटी बात का ख्याल।
“भाभी, आप परेशान न हों, मैं कोई मेहमान थोड़ी हूं!”
– नेहा ने मुस्कुरा कर कहा।
इतना सुनते ही मेघा की आँखें भर आईं। वह तुरंत रसोई की तरफ़ निकल गई।
नेहा भी चुपचाप उसके पीछे चल दी — अब उसे भी तहक़ीक़ात करनी थी।
रसोई में जाकर देखा तो मेघा वही पुराने जैसे पतले फुल्के बना रही थी।
“शायद मुझे देखकर ही बना रही हो…”
– नेहा ने सोचा।
“बहू, मेरा भी खाना परोस दे।”
– अशोक जी ने आवाज़ दी।
“जी पापा, बस अभी देती हूं।”
“अरे, इतने सारे फुल्के हैं, एक तो दे दो इनमें से!”
– नेहा बोली।
“नहीं दीदी, पापा अब पहले जैसे नहीं खाते। पहले दो फुल्के आराम से खा लेते थे। अब बहुत कम खुराक रह गई है। अगर ज़बरदस्ती देती हूं तो नाराज़ हो जाते हैं। इसलिए थोड़ा मोटा सेंक देती हूं — ताकि कुछ तो पेट में जाए। देखिए, कितने कमजोर हो गए हैं!”
– मेघा ने हल्के स्वर में कहा।
नेहा स्तब्ध रह गई।
रात होते-होते अशोक जी दूध लेने निकल पड़े।
“ला बहू, दे दे तेरी बाल्टी, मैं ले आऊं दूध!”
– उन्होंने झुंझलाते हुए कहा।
जैसे ही वे बाहर निकले, मेघा ने फ़ोन उठाया —
“हैलो शर्मा अंकल? पापा निकल गए हैं।”
“भाभी, किसे फोन कर रही हो?”
– नेहा ने पूछा।
“शर्मा अंकल को। पापा जी मम्मी जी के जाने के बाद कहीं आना-जाना बंद कर चुके थे। इसलिए दूध वाला भी आना बंद कर गया। मैंने सोचा, दूध लेने खुद जाएंगे तो थोड़ा टहल भी लेंगे। उनके सभी दोस्तों से भी कह दिया है — वो लोग भी मिलने आ जाते हैं। थोड़ी बातचीत हो जाती है तो मन हल्का होता है।”
नेहा की सोच से परे था यह सब।
“ये क्या कर रही हो, भाभी?”
“पापा अब दिन में मुश्किल से एक बार ही दूध लेते हैं। पहले बादाम-मुनक्का लेते थे, अब सब बंद कर दिया है। कब्ज़ न हो जाए इसलिए मैं पेस्ट बनाकर दूध में मिला देती हूं — ताकि कुछ तो उनके शरीर में जाए।”
नेहा बस उसे देखती रह गई।
अब उसके पास कोई शब्द नहीं थे।
कुछ देर बाद अशोक जी फिर ग़ुस्से में बोले,
“कह देना अपनी भाभी से, इसे जाना हो तो दो-तीन दिन अपने माँ-बाप के पास हो आए। जब तक तू रहेगी, सब संभाल लेगी। ये कोई ठकुराइन नहीं है इस घर की!”
मेघा सब सुन रही थी। उसकी आँखों में आँसू थे।
“शायद पापा जी सचमुच चिड़चिड़े हो गए हैं।”
– उसने मन में सोचा।
“भाभी, पापा ठीक कह रहे हैं। आप जाएं। मैंने भैया से टिकट के लिए बोल दिया है।”
नेहा ने अशोक जी को समझाते हुए कहा,
“पापा, आपको भाभी के सामने ऐसा नहीं कहना चाहिए था। उन्हें बहुत ठेस पहुंची है।”
अशोक जी ने गहरी सांस ली —
“सब जानता हूं। वो मोटी रोटी, वो मिलावटी दूध — सब बहाना था। तुझे बुलाना था। ताकि उसे भी कुछ दिन अपने माँ-बाप के पास भेज सकूं। बेटियों को मायके जाते रहना चाहिए वरना रिश्ते भी धीरे-धीरे भूल जाते हैं कि कोई बहन, कोई भुआ हुआ करती थी। वो यहां सब कुछ छोड़ रही है — कहीं खुद को ही न खो दे।”
दरवाज़े पर खड़ी मेघा सब कुछ सुन रही थी।
यह कहानी आधुनिक भारतीय परिवारों में रिश्तों के बदलते स्वरूप, पीढ़ियों के बीच संवादहीनता, और एक बहू के मौन त्याग को उजागर करती है। ‘चुप्पी के पीछे’ सिर्फ़ एक बहू की सहनशीलता नहीं, बल्कि परिवार को जोड़ने की उसकी गहराई और समझदारी का प्रतीक है। कहानी दर्शाती है कि अक्सर जो सबसे कम बोलते हैं, वही सबसे ज़्यादा निभाते हैं। यदि हम रिश्तों में केवल शिकायतों के बजाय समझ और सम्मान को प्राथमिकता दें, तो परिवार पहले से कहीं अधिक सशक्त और भावनात्मक रूप से जुड़ा हो सकता है।